विचारों का  स्वास्थ्य पर  प्रभाव

हमारे शरीर के स्वस्थ संचालन हेतु अनेक रसों की आवश्यकता होती है, जिनका निर्माण और बहाव स्वाभाविक रूप से हमारे शरीर में अनेक नलिकाविहीन ग्रन्थियों (ductless glands) द्वारा होता है।

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इन ग्रन्थियों का संचालन मस्तिष्क के नाड़ी संस्थान द्वारा होता है। वे ग्रंथियां हमारी विचार प्रणाली से सतत् प्रभावित होती रहती हैं। जैसे स्वादिष्ट वस्तु का नाम सुनने से ही हमारी लार ग्रन्थियां (salivary glands) एकदम मुंह में रस निकाल देती हैं तथा शोक का कोई समाचार सुनते ही मुंह सूख जाता है।

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ऋणात्मक विचार  (negative thoughts)

जैसे- क्रोध, घृणा,ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, स्वार्थ, चिन्ता, झूठ, भय, परद्रोह आदि से प्रभावित होकर ये ग्रन्थियां विषमय रस निकालकर शरीर को भयंकर रोगों से ग्रसित करती हैं।

डॉ. मोसाहारू तानागुची, पी.एच.डी. के अनुसार यदि आपका मन आसुरी प्रवृत्तियों में सुखी होता है तो निश्चय ही वह विकृत एवं असामान्य है। क्रोध, घृणा, भय, ईर्ष्या, दूसरों को नीचा दिखाने की मानसिकता- मन की यह सब असामान्य स्थितियां हैं। ये बीमारियों को जन्म देती है।

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फ्लोरेंस स्कॉवेल शिन के अनुसार - " किसी की निरंतर आलोचना करने से स्वयं को गठिया रोग हो सकता।  आलोचना से रक्त में तरल मल उत्पन्न हो जाता है और वह हड्डियों में जम जाता है।"

प्रसिद्ध डॉ. जे. डीशेन ने कहा है - " स्वास्थ्य में जटिलता का कारण मन की जटिलता है।

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सकारात्मक विचार (positive thoughts)

जैसे-मैत्री, दया, क्षमा, मुदिता, प्रेम, सेवा, शान्ति, त्याग, भलाई, प्रशंसा, परहित चिन्तन, निर्भयता आदि से प्रभावित होकर ये ग्रन्थियां शरीर में अमृतमय पाचक रसों का संचार करती हैं, जिससे शरीर में स्वास्थ्य प्राप्त होता है। ऐसा स्वास्थ्य संसार के किसी भी पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता है।

यह देखा गया है कि कुछ व्यक्तियों के भयानक से भयानक रोग प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने स्वस्थ विचारों के कारण बहुत शीघ्रता से दूर हो गये हैं।  अन्य कुछ व्यक्तियों के रोग उनके विपरीत विचारों के कारण दवाइयों के बावजूद काफी लंबे समय तक दूर नहीं हो पाते हैं।

मेट फॉक्स के अनुसार- 'सभी के प्रति क्षमाशीलता और स‌द्भावना के बिना स्थायी स्वास्थ्य संभव नहीं है। यदि आप अपनी आत्मा को शत्रुता एवं निंदा के विकारों से मुक्त नहीं करते तो अत में आपकी सम्पन्नता तक नष्ट हो जायेगी।"

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कैथरीन पॉण्डर के अनुसार यद्यपि मनुष्य लगभग 2% शरीर है और 98% मन व आत्मा, लेकिन एक औसत व्यक्ति अपना लगभग 98% समय 2% वाले शरीर के चिंतन में ही व्यय कर देता है। यही कारण है कि वह प्रायः दुख भोगत्ता है। वह अंदर से मल व आसक्ति बाहर निकालने के बजाय (भोजन व धन) बाहर से अंदर डालकर अच्छा स्वास्थ्य पाने की असफल चेष्टा करताहै।

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